सुख दुःख की छाँव
सुख दुःख की छाँव
अभी तो मेरी शादी ही हुई थी, मैं बड़े आनंदपूर्वक अपने वैवाहिक जीवन को जी रही थी सब कुछ तो ठीक ठाक चल रहा था। जीवन में जब सुख के क्षण होते हैं तो वक़्त को भी पर लग जाते हैं पता ही नहीं चला कब विवाह को तीन साल बीत गए। घर बड़ा था घर के लोग भी बड़े अच्छे थे पति तो बहुत ही ध्यान रखने वाले थे। सास थोड़ा पुराने जमाने की थी, घर के रीति रिवाज़ो का बड़ा ख्याल रखती थी। शहर में मैं कैसे ही रहूं उन्हें कोई दिक्कत नहीं पर गांव में घूँघट तो नहीं पर सर ढकने को बोलती थी। मैं भी उनका सम्मान करते हुए सर पर पल्ला लेने में कभी आना कानी नहीं की। मैं गर्भ से थी, जब से ये बात घर में पता चली तब से तो सब आगे पीछे लग गए। ऐसा लग रहा था कि मैं कोई राजा की रानी हूँ और सब मेरे सेवक हैं। पति भी मेरे खाने पीने व अन्य सभी सुविधाओं का ध्यान रखते।
समय होने पर मैंने सुंदर सी कन्या को जन्म दिया। घर में उत्सव का माहौल था सब बड़े खुश थे कन्या आगमन घर पर हुआ है। ससुर जी ने जब कहा कि “पहला बच्चा कन्या है कन्या के पैर घर के लिए बड़े शुभ होंगे। ” ये सुनकर मुझे बड़ी प्रसन्नता हुई। बिटिया के नामकरण की घड़ी आई तो फिर उत्सव हुआ। मेरा सारा स्टाफ और मेरे पति के स्टाफ के अलावा सभी रिश्तेदार आये। हवन हुआ और हमारे गुरु जी ने बिटिया का नाम प्रिया रखा।
पता ही नहीं चला कब छः महीने बीत गए। मुझे नहीं पता था कि मेरे सुखी जीवन में अब दुखों का आगमन होने वाला है। रबी की फसल कट चुकी थी, देवर जी ने रवि से कहा कि गेंहू ले जाओ (साल भर का गेंहूं हम अपने गांव से ही ले आते थे) ये गांव ही गए थे, दोपहर का समय था मैं प्रिया के साथ बैठी खेल रही थी। रवि भी बोल कर गए थे कि शाम तक वापस आ जाऊंगा। शाम भी हो गयी पर अभी तक इनका कोई फ़ोन भी नहीं आया, मैं सोच ही रही थी की अचानक फ़ोन बज उठा।
मैंने तुरंत पूँछा ,”कहाँ हो ?”
उधर से आवाज आई मैडम मैं अस्पताल से बोल रहा हूँ। आपके पति का एक्सीडेंट हो गया है, उन्हें बड़े अस्पताल में रेफर किया गया है। आप वहीं पहुँच जाओ।
सुनकर थोड़ी देर के लिए तो ऐसा लगा मानो कटे तो खून नहीं। कुछ क्षण के लिए मैं वहीँ बैठ गई, कंठ सूख गया, चक्कर आने लगे। मैंने खुद को संभाला पास पड़ी बोतल से पानी पिया। गाड़ी की चाबी ली क्रेडिट, डेबिट कार्ड्स लिए और प्रिया को बगल में उठाया और गाड़ी स्टार्ट की। गाडी स्टार्ट करते करते ही मैंने कुछ दूर में रह रही अपनी नन्द को फ़ोन कर सब कुछ बता दिया।
कुछ ही देर में मैं अस्पताल पहुँच गई। नन्द साथ साथ ही पहुंच गयी थी, मैंने प्रिया को उन्हें सौंप कर अन्य काम पर ध्यान दिया। वहां जाकर पता चला की बांया पैर पूरी तरह से कुचल गया है।
मैंने डॉक्टर से पूँछा “सब ठीक है?”
डॉक्टर बोले, “जान बच गई है पर एक पैर को बचा पाना संभव नहीं, आप जल्द से जल्द नर्स के पास जाकर पेपर की फॉरमैलिटीज पूरी कर लें ताकि हम जल्द से जल्द ऑपरेशन कर दें, वैसे भी खून बहुत बह चुका है।”
मैं कुछ समझ नहीं पा रही थी और डॉक्टर जो बोल रहे थे वही करे जा रही थी।
मैं नर्सिंग स्टेशन पर पहुँची तो नर्स ने मुझे सारा मामला कह सुनाया। नर्स से बात करते करते कब सारे पेपर मैंने दस्तखत कर दिए पता भी नहीं चला।
तब तक घर के और लोग भी अस्पताल पहुँच चुके थे। मैं सीधे रवि के पास एमरजेंसी में पहुंची तो देखा ये दर्द से कराह रहे थे, खून व अन्य दवाएं चढाई जा रही थी। अटेंडेंट ने बताया की कुछ देर में इनको ओ.टी ले जाना है।
इतने में ही बिल सेक्शन का फ़ोन आया मैडम कुछ पेमेंट करनी होगी। मुझे पता था मेडिकल इमरजेंसी के समय सबसे बड़ा साथी धन ही है इसलिए कार्ड्स उठा लाई थी।
मैं भाग कर काउंटर पर गई। अकॉउंटेंट ने पूंछा, “आप रवि के साथ है। ”
‘हाँ मैं उनके साथ ही हूँ।’
“क्या रवि के नाम कोई हेल्थ इंश्योरेंस ली हुई है ?
तो 50000 रूपये जमा करने होंगे और इन्शुरन्स के पेपर देने होंगे, यदि नहीं है तो दो लाख रूपये जमा करने होंगे ।” अकाउंटेंट ने मेरी ओर देखते हुए पूँछा ।
अकाउंटेंट का सवाल सुनते ही मेरी आँखों में चमक आ गई, भाग दौड़ में मैं भूल ही गई थी की इन्होने शादी होते ही मुझे अपने साथ एक मेडिकल इन्श्योरेंस पॉलिसी में ऐड किया था।
मैंने कहा “हाँ है, मैं अभी आपको मेल कर देती हूँ।
मेरे पास हमेशा इनके मेल आई डी का पासवर्ड रहता है।”
मैंने इनके फ़ोन से इनकी मेल खोली(इनका फ़ोन पर्स मुझे आते ही एडमिट करने वाले सज्जन ने दे दिया था) कुछ समय ढूंढने के बाद मुझे सारी डिटेल मिल गई जो मैंने हॉस्पिटल को फॉरवर्ड कर दी।
अकाउंटेंट बोला “अब हम कंपनी से आपका क्लेम करते रहेंगे, आपके पति ने आपको बड़ी आर्थिक परेशानी से बचा लिया।”
ये सुनकर मेरी रोती आँखों में ख़ुशी की चमक आई।
मैं जल्दी जल्दी इमरजेंसी की और गई तो उन्हें ओ. टी की ओर ले जा रहे थे, मैं भी रिस्ट्रिक्टेड एरिया तक साथ गई। आगे जाने की अनुमति नहीं थी।
काफी इंतजार के बाद डॉक्टर बाहर आये और बोले “अब जान को खतरा नहीं है, लेकिन उनका बांया पैर हमे घुटने से नीचे काटना पड़ा।’
मैं जान बचने की प्रार्थना ही कर रही थी, पैर काटने का दुःख मुझे विचलित नहीं कर रहा था बल्कि जान बचने की खबर अधिक सुकून दे रही थी।
कुछ दिन अस्पताल में बिताने के बाद रवि को अस्पताल से छुट्टी मिल गई। घर आने के बाद मैंने इनकी बड़ी सेवा की, दूसरी तरफ़ अस्पताल में खर्च हुए साढ़े तीन लाख रुपयों में से तीन लाख का क्लेम इन्श्योरेंस से पास हो गया।
इधर रवि भी अपने कृत्रिम पैर से चलने का अभ्यास कर रहे थे उधर मैं भी दुख की आई इस घडी से बाहर आ रही थी। सच ही है दुःख की घड़ी के बाद सुख की घड़ी आती है। जीवन के इस चक्र में हमे हमेशा एक जैसा फल नहीं मिलता। कभी मीठे तो कभी कड़वे अनुभव होते रहते हैं।
आज फिर जीवन में ठंडी ठंडी बयार के झोके आ रहे हैं, गर्मी की वो तपन आई और बहुत कुछ सिखा के चली गई।
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