वीर सावरकर
वीर सावरकर
भारत की स्वतंत्रता में वीर सावरकर का योगदान अतुलनीय है। इनका जन्म 28 मई 1883 को हुआ। इन्होने अपने स्कूल के दिनों से ही भारत की स्वतंत्रता के लिए काम करना शुरू कर दिया था, अपने भाई के साथ अभिनव भारत सोसाइटी का गठन किया। इंग्लैंड में जाकर भी इन्होंने देश की आज़ादी के लिए संघर्ष जारी रखा, वहां ये इंडिया हाउस और फ्री इंडिया सोसाइटी जैसे संघठन से जुड़े और अपने स्वतंत्रता के संग्राम को आगे बढ़ाया।
इन्होंने देश ही नहीं अपितु विदेश में भी क्रांतिकारियों को तैयार करने का काम किया, अपने इसी योगदान के कारण वो ब्रिटिश सरकार की नज़रों में खटकने लगे। उन्हें लन्दन में गिरफ्तार किया गया और आगे की कानूनी कार्यवाही के लिए मोरिया नामक पानी के जहाज़ से मुंबई लाया गया। भारत वापस लाने के दौरान उन्होंने बड़ा साहसिक कार्य किया, अपने प्राणों की परवाह किये बिना ही उन्होंने जहाज़ से भाग जाने की रणनीति तैयार कर ली थी। जब मोरिया नमक जहाज़ फ्रांस के पोर्ट मार्सेलिस में लंगर डाल खड़ा था तब उन्होंने शौच के बहाने ब्रिटिश सैनिकों को मूर्ख बनाया और शौचालय के रोशनदान से कूद कर फ्रांस के पोर्ट की तरफ तैरने लगे । जब सुरक्षा कर्मियों को पता चला तो उनके पैरों तले ज़मीन खिसक गई उन्होंने अपने अफसरों को सूचित किया, उन्होंने किनारे की तरफ तैर रहे सावरकर पर गोलियां भी चलाई परन्तु अपने प्राणों की परवाह किये बिना वो किनारे की तरफ तैरते रहे । तुरंत एक नाव सावरकर के पीछे पोर्ट तक भेजी गई। सावरकर जी ने अंतर्राष्ट्रीय कानून को पढ़ा था उन्होंने कानून का हवाले देते हुए फ्रांस अफ़सर जो पोर्ट पर उपस्थित थे, से राजनीतिक शरण मांगी। फ्रांस पुलिस ने उन्हें अंतर्राष्ट्रीय सीमा उल्लंघन करने पर गिरफ्तार तो कर लिया परन्तु न जाने किस दवाब में उन्हें वापस ब्रिटिश पुलिस के हवाले कर दिया गया।
ब्रिटिश पुलिस ने उन्हें बड़ी निर्दयता के साथ वापस लाकर बेड़ियों और हथकड़ियों में कस दिया।सावरकर जी का ये साहसिक कार्य अंतर्राष्ट्रीय न्यूज़ बना और ब्रिटिश सरकार का क्रूर चेहरा पूरे संसार के सामने आया।
मुंबई की एक अदालत में उनपर केस चला और उन्हें 50 वर्ष की कठोर काळा पानी की सजा मिली। इन्हे अंग्रेजों ने दो बार उम्र कैद की सजा दी थी। इन्हे अंदमान की सेलुलर जेल में लेकर कैद कर दिया गया। इनपर लगातार जुर्म किये गए कोहलू में बैल के स्थान पर जोता। हाथों में हथकड़ी लगाकर पूरे दिन भूखे प्यासे खड़े रखा। लगातार खड़े रहने से पैरों में सूजन आ जाती थी।
अपनी पुस्तक “द इंडियन वॉर ऑफ़ इंडिपेंडेंस” में इन्होने 1857 की लड़ाई को आज़ादी का प्रथम संग्राम कहा, जिसे ब्रिटिश सरकार ने अपने विरुद्ध विद्रोह माना। इस पुस्तक ने जनजागरण का काम किया परन्तु अंग्रेजों ने इस के प्रकाशन और वितरण पर रोक लगा दी।
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